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मतलब की राजनीति :- राजनीति स्वार्थ की दीवारों में सिमट कर रह गई ।

 

राजनीती स्वार्थ की दीवारों में सिमट कर रह गई 

                                        :-अभिनव मुखुटी
            

                  *मतलब की राजनीति*




इण्डिया-इण्डिया, इण्डिया-इण्डिया यह ध्वनि जब हम सचिन तेंदुलकर और सौरव गांगुली के दौर में क्रिकेट मैच देखते हुए सुनते थे तब राष्ट्रप्रेम और एकजुटता का प्रबल एहसास होता था कि बल्लेबाजी करने वाले सचिन या सौरव जो कि भारत के सपूत है जो रन बना कर देश को विजयी बनायेंगे किन्तु वर्तमान हालात यह है कि लोग सचिन-सौरव के रनों से अधिक तेन्दुलकर और गांगुली पर अर्थात जाति पर जोर देने लगे है कि मराठी ब्राम्हण परिवार या बंगाली ब्राम्हण परिवार का बेटा है इसलिए इन्हें पहले बल्लेबाजी करने भेजा जाता है भला हो कि उन्होंने इस दौर से पहले ही सन्यास ले लिया अन्यथा उनकी काबिलियत से बने रनों के आंकडें 5 हज़ार वर्ष प्राचीन इतिहास की जंग में दब कर रह जाते. किन्तु राजनीति के चलते जातिवाद का ज़हर इतना बढ़ गया है कि विगत समय क्रिकेट मैच में एक हार को लेकर भारतीय टीम के खिलाडियों के बल्लेबाजी में उतरने के क्रम पर भी जातिगत आलोचनाओं के सवाल दाग दिए गए. बात यदि इतिहास कि करें तो जातिवाद एक ऐसी प्रथा है जो मानव को मानव में भेद करना सिखाती है, एक ओर सभी धर्म प्राणी मात्र से प्रेम करने कि शिक्षा देते है वहीं दूसरी ओर जातिगत विचारों से दूरियां निर्मित होती है, रामायण का राम-केवट प्रसंग हो, राम-निषादराज प्रसंग या फिर राम-सबरी प्रसंग उसमें जातिवाद दर्शाने में कहीं भी कोताही नहीं बरती गई वहीं महाभारत काल में भी द्रोणाचार्य-कर्ण प्रसंग हो, द्रोणाचार्य-एकलव्य प्रसंग या फिर कृष्ण-सुदामा प्रसंग हर दफ़ा जातिवाद को दर्शाने में कहीं भी कमी नहीं की गई हर दफ़ा मानव को जातिगत ऊँच-नीच का एहसास कराया गया है, यही एहसास इंसानों में एक दरार से खाई में कब तब्दील हो गई पता ही नहीं चला. भारत की आज़ादी की लड़ाई का दौर स्वर्ण युग कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी जिसमें प्रत्येक वर्ग के भारतियों ने अपना योगदान दिया, लेकिन उन प्रणेताओं को तब यह इल्म नहीं होगा कि उन्हें राजनीति के नाम पर जातिगत समीकरण में बाँट दिया जायेगा, क्या डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने केवल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए ही संविधान का निर्माण किया था ? क्या मंगल पाण्डेय और चन्द्र शेखर आज़ाद ने ब्राम्हणों के लिए ही कुर्बानी दी थी ? सुभाष चन्द्र बोस ने क्या महज कायस्थों के उत्थान के लिए आज़ाद हिन्द फौज का निर्माण किया था ? सरदार वल्लभ भाई पटेल से लेकर बिरसा मुंडा तक और जोतिबा फुले से लेकर लक्ष्मी बाई तक को जाति या वर्ग तक सीमित करना उनके योगदान को कमतर आंकने के समान होगा क्योंकि उन्होंने जाति या धर्म से अधिक देश को सर्वोपरि माना था. देश की आज़ादी के उपरांत राष्ट्र संचालित करने हेतु निर्मित संविधान ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग को उनका अधिकार दिलाने बावत 10 वर्ष तक के लिए आरक्षण की शुरुआत की जो तात्कालिक देश-काल परिस्थिति के अनुरूप यथोचित भी था, जिसे समय के साथ-साथ बढ़ाया भी गया किन्तु प्रश्न यह बनता है कि क्या जातिगत आरक्षण मात्र से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के निवासियों को उनके समानता का अधिकार प्राप्त हुआ ? वर्तमान दौर में भी कुंएं से पानी भरने और जूते पहन कर सामंतवादी परिवारों के घर के सामने से निकलने पर विवाद देखने को मिल ही जाते है. यदि पुलिस लगा कर दूल्हे को घोड़े पर बिठाया जाता है तो क्या तब भी कहा जा सकता है कि देश में सभी नागरिकों के लिए समानता का अधिकार प्राप्त है ? राजनैतिक व्यक्ति चुनाव के दौर में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के घर जाकर भोजन करते है और उनके साथ तस्वीर खिचवाना नहीं भूलते जिसके उपरांत समाचार पत्रों से लेकर सोशल मीडिया तक उस तस्वीर को संप्रेषित कर जातिवाद के वोट बैंक को रिझाने का प्रयास किया जाता है किन्तु वास्तविक हकीक़त तो यह है कि यदि आपके मन में जातिवाद का कड़वा बीज ना होता तो तस्वीर खिचवाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि मानव का मानव के हाथों से निर्मित भोजन का मानव के घर भोजन करने पर समाचार पात्र हेतु खबर किस प्रकार से निर्मित होती है यह तथ्य समझ से परे है. यहाँ साफ़ प्रतीत होता है कि आप ऊंच-नीच नहीं करने की बात तो कर रहे है किन्तु उसका प्रचार देख कर जनता को भी एहसास होना चाहिए कि उक्त व्यक्ति तस्वीर डाल कर अपनी वोट बैंक की महज राजनैतिक रोटियां ही सेंक रहे है. यह जातिवादी राजनीति तो तभी से शुरू हो गई थी जब संविधान द्वारा प्रदान किए 10 वर्ष तक के आरक्षण को बढ़ाया गया था, ज्ञात हो आरक्षण तो समय-समय पर बढ़ाया गया किन्तु अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के जीवन में परिवर्तन या जातिवाद को समाप्त करने का प्रयास किसी भी राजनैतिक दल ने नहीं किया. इस अंगारे ने शोलों का रूप 90 के दशक में मण्डल-कमंडल के दौर में लिया जिसमें पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर मुहर लगा कर आरक्षण के विषय को राजनैतिक अमली-जामा पहना दिया गया. बात तब और अधिक गंभीर हो गई जब पिछड़ा वर्ग ने आरक्षण में अपने संख्याबल के अनुरूप अधिकार प्राप्त करने के विषय को उठाया और बात राजनैतिक गलियारों से सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गई, लेकिन प्रश्न पुन: वही बनता है कि किसी भी इंसान को जन्म के आधार पर पिछड़ा कहना कहाँ तक जायज है, जातिगत राजनीति के चलते आरक्षण हेतु अनेकों आन्दोलन किए जाते है और उनमें आरक्षण के विषय में विभिन्न तर्क भी दिए जाते है किन्तु यह प्रश्न कभी नहीं किया गया कि किसी भी वर्ग को पिछड़ा कहना कहाँ तक उचित है, किसी भी पिछड़ा वर्ग के नेता ने यह नहीं कहा कि हमको भी सामान्य कहा जाये हम किस आधार पर असामान्य है, क्योंकि कोई भी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति या पिछड़ा वर्ग का नेता यह नहीं चाहता कि जातिवाद समाप्त हो क्योंकि उनकी राजनैतिक दुकानें जातिवाद से ही चल रही है एक ओर संविधान का अनुच्छेद 15 सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान करता है वहीं दूसरी ओर शासकीय दस्तावेजों में जाति तथा वर्ग का उल्लेख अतिआवश्यक दर्शाया जाता है. यदि शासन चाहता है कि जातिवाद को बढ़ावा ना दिया जाए तो दस्तावेजों में केवल नाम का ही स्थान हो उपनाम का नहीं लेकिन बात सिमट कर पुन: वहीं खड़ी हो जाती है कि यदि नागरिकों को जाति के नाम पर नहीं बांटा गया तो कैसे चुनाव में मत प्राप्त किये जा सकेंगे. अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति वर्तमान राजनीति का पर्याय बन गई है. राजनैतिक दल हो या राजनैतिक दलों में बने खेमे केवल जनता के सामने या मंच पर प्रतिद्वंदिता की बात करते है लेकिन अन्दर राजनैतिक उठा-पटक से हटके सत्ता प्राप्ति और निजस्वार्थ सिद्धि ही केवल इनका एक मात्र मकसद होता है, अपने आकाओं को प्रसन्न करने इन नेताओं के चाटुकारों और दरबारियों को यह बोध ही नहीं होता कि कल तक जिसके ख़िलाफ़ पोस्टें डाल रहे थे अब उनकी तारीफों के पुल बाँधने होंगे, नेता सत्ता पक्ष हो या विपक्ष का काम किसी का नहीं रुकता बड़े-बड़े नेताओं के दल-बदल से लेकर विचारों के बदलने तक में पिसता सिर्फ ज़मीनी कार्यकर्ता ही है जिसके आपसी सम्बन्ध ख़राब होते है, जिस पर कानूनी मुक़दमे थोपे जाते है जिसे राजनैतिक षड्यंत्र में बलि पर चढ़ाया जाता है. एक युवा कार्यकर्त्ता को राजनैतिक पद रुपी लोलीपॉप थमा कर आई. टी, सेल की पोस्टों से लेकर कार्यक्रम की कुटवारीगिरी करवाने से यह राजनेता बाज नहीं आते, जिस दौर में युवाओं के हाथ में भविष्य निर्माण हेतु कलम होनी चाहिए उस दौर में यह राजनैतिक दल उन्हें राजनैतिक झंडे एवं पम्पलेट थमा कर राजनीति के एक ऐसे नशे की ओर अग्रसर करते है जिसमें सही गलत के बोध को त्याग कर अपने राजनैतिक आकाओं की गुलामी को ही सर्वोपरि मान लिया जाता है. राजनैतिक दलों द्वारा विरोध प्रदर्शन, भाषणबाजी सब रणनीति के साथ की जाती है. राजनैतिक पार्टी एवं विचारधारा को दरकिनार कर राजनैतिक स्वार्थ के लिए अपने चिर-प्रतिद्वंदी को आलिंगन करते भी नज़र आते है मकसद केवल एक की उनके वोट बैंक का नुकसान ना हो, धर्म खतरे में है जाति या धर्म को सुरक्षित करना है के कथन आपने सोशल मीडिया पर अनेकों दफ़ा सुने होंगे लेकिन धर्म या जाति के लिए कितने नेताओं के पुत्रों ने योगदान दिया है इस विषय पर भी विचार करें, महज इंदिरा गाँधी का पुत्र होने के एवज में राजीव गाँधी को देश की कमान सौंप दी गई थी वहीं राजीव गाँधी का पुत्र होने मात्र से राहुल गाँधी को युवराज घोषित कर दिया गया, वहीं वर्तमान सत्ता पक्ष राजनीति में परिवारवाद का विरोध करके अमित शाह के पुत्र जय शाह को भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड का सचिव बना दिया गया, मध्य प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के पुत्र कार्तिकेय अमेरिका के विश्वविद्यालय से कानून विषय पर स्नातक की उपाधि हासिल करते है वहीं मतदाताओं के बच्चे शासकीय विद्यालय में मध्यान भोजन की कतार में लगे नज़र आते है. कैलाश विजय वर्गीय के पुत्र विधायक है, कमलनाथ के पुत्र छिंदवाड़ा से सांसद है तो दिग्विजय सिंह के पुत्र विधायक फिर भी दौनो ही पार्टियाँ कहती है कि हमारी पार्टी में परिवारवाद नहीं चलता दौनो ही पार्टियों में ऐसे अनेकों उदाहरण है जिसमें पिता की राजनैतिक सत्ता को बपोती मान कर राजनीति को आगे बढ़ाने की बात सामने आयी है कुछ राजनेताओं के पुत्रों को सत्ता का सुख मिल चुका है तो कुछ कतार में है अर्थात राजनैतिक कार्यकर्त्ता भाट, चारण और दरबारियों की भांति सदैव गुलाम बन कर सभाओं में कुर्सियां बिछायेंगे, जयकारे के नारे लगायेंगे और कार्यक्रम के उपरांत अपने आका की तारीफों की पोस्टें सोशल मीडिया पर डालेंगे क्या यही महत्त्व है एक ज़मीनी कार्यकर्ता का जिसे छोटे से राजनैतिक पद के जाल में फंसा कर मुफ्त सेवाओं के लिए उपयोग किया जायेगा. वर्तमान में युवा राजनैतिक षड्यंत्र के निरंतर शिकार हो रहे है जिसमें वह नागरिकों को धर्म और जाति के जाल में ऐसा फंसाते है जिसमें नागरिक द्वेष के चक्र में ऐसा फंसता है कि वह सत्य और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने से कोसो दूर निकल जाता है. शासन की योजनायें प्रधानमंत्री आवास योजना, मनरेगा, सड़क निर्माण, स्वच्छ भारत अभियान में हो रहे भ्रष्टाचार पर किसी सत्ता पक्ष नेता तो छोडिये विपक्ष के नेताओं के तर्क या विरोध प्रदर्शन भी देखने को नहीं मिले. बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, शिक्षा, चिकित्सा, महिला सुरक्षा जैसे विषयों पर सवाल न हो इस बात को ध्यान में रखकर नागरिकों को जाति-धर्म में फंसाया गया है, राजनेता अपने वोट बैंक के लिए कभी तिलक लगा कर तो कभी टोपी पहन कर नज़र आते है किन्तु अब नागरिकों को सोचना होगा कि हमारी मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा है या फिर धर्म और जाति ?


*लेख़क : अभिनव मुखुटी (राजा)*

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