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कोटिल्य  का सप्तांग  सिद्धांत  ।
प्राचीन भारतीय राज दर्शन मै राज्य के सामयव  रूप का उल्लेख मिलता है ।तत्कालीन विद्वान राज्य को एक सजीव  प्राणी मानते थे ऋग्वेद में संसार की कल्पना एक विराट पुरुष के रूप में कि गई है और उसके अवयवों द्वारा सृष्टि के विभिन्न रूपों का बोध कराया गया है ।
मनु ,भीष्म ,शुक्र आदि मनीषियों ने राज्य की कल्पना एक ऐसे जीवित जाग्रत शरीर के रूप में कि गई है । जिसके सात अंग होते है । कोटिल्य  ने  भी राज्य के आंगिग  स्वरूप का समर्थन किया है । और राज्य को सप्त प्रकृतियुक्त माना है ।
कोटिल्य के अनुसार राज्य के सप्त अंग निम्न होते है ।

(1.)स्वामी (2. )अमात्य( 3.)जनपद (4.)दुर्ग(5.) कोष (6.)दंड (7.) मित्र 

कोटिल्य ने राज्य के अन्तर्गत स्वामी अथवा राजा को सर्वोपरि माना है ,यह राज्य का मुखिया होता है , तथा समस्त राज्य शक्तियां का राज्य के केंद्र राजा के उपर केंद्रित होते है । अन्य सभी अंग राजा के अधीन होते है ।
कोटिल्य के अनुसार राजा वह व्यक्ति होना चाहिए जो उच्च कुल में जन्मा हो  , धर्म मे आस्था रखने वाला हो दूरदर्शी हो , सत्यवादी हो ,महत्वकांक्षी हो , परिश्रमी  हो गुणीजनो  की पहचान वा उनका आदर करने वाला हो ,शिक्षा प्रेमी हों , योग्य मंत्रियो को रखने वाला तथा सामंतो प र नियंत्रण रखने वाला हो। 

कोटिल्य के अनुसार राजा में विवेक तथा परिस्थिति देखकर कार्य करने की क्षमता हो ,प्रजा की सुरक्षा तथा पोषण करने की क्षमता हो ,

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