प्रश्न - 1. आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में अंग्रेजों की विजय या फ्रांसीसियों की पराजय के कारणों
का वर्णन कीजिये।
अथवा
कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में फ्रांसीसियों की असफलता के कारणों की विवेचना
कीजिये।
अथवा
आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में अंग्रेजों की सफलता के कारणों पर प्रकाश डालिये।
अथवा
कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की हार के क्या कारण थे?
अथवा
आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिये।
उत्तर-
फ्रांसीसी पराजय के कारण या आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में अंग्रेजों की विजय के कारण-
(1) श्रेष्ठ अंग्रेजी सेनानायक-
अंग्रेजी कम्पनी का राजनीतिक तथा सैनिक नेतृत्व फ्रांसीसी कम्पनी की अपेक्षा अधिक उत्तम था। डूप्ले तथा बुसी व्यक्तिगत रूप से क्लाइव, लॉरेन्स और साण्डर्स से कम नहीं थे, परन्तु क्लाइव की तरह वे सैनिकों में जोश नहीं उत्पन्न कर सके। दूसरे, उनके अधीन कार्यकर्ताओं में भी वैसी दक्षता नहीं थी। काउण्ट लैली बहुत उस स्वभाव का व्यक्ति था। दूसरी ओर अंग्रेजों के पास अच्छे सैनिक नेता थे तथा उनके अधीनस्थ लोग भी डूप्ले तथा बुसी के अधीनस्थों से उत्तम थे। मैलीसन के अनुसार, लॉरेन्स, सौण्डर्स, कैलॉड,
फोर्ड इत्यादि अनेक अंग्रेजी पदाधिकारी डूप्ले के लॉज, एण्ट्यूइल्स, बेनियर इत्यादि फ्रांसीसी अफसरों से अधिक साहसी तथा उत्तम थे।
(2) अंग्रेजों की बंगाल विजय- अंग्रेजों की बंगाल में विजय एक महत्वपूर्ण कारण थी। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठा बढ़ी अपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हें मिल गयी। जिस समय काउण्ट लैली को अपनी सेना के वेतन देने की चिन्ता थी, बंगाल से कर्नाटक को धन तथा जन दोनों भेजे जा रहे थे। दक्खिन इतना धनी था कि डूप्ले तथा लैली की महत्वाकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुसी के पास था परन्तु वह केवल डेढ़ लाख रुपये ही भेज पाया।
स्मिथ के अनुसार, "न तो अकेले और न ही मिलकर डूप्ले अथवा बुसी जल में वरिष्ठ तथा धन में गंगा की घाटी के वित्तीय स्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त कर सकते थे। पाण्डिचेरी से आरम्भ करके सिकन्दर महान तथा नेपोलियन भी बंगाल तथा समुद्री वरिष्ठता प्राप्त शक्ति को परास्त नहीं कर सकते थे।" मेरियट ने ठीक ही कहा है कि डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निष्फल प्रयास किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी तथा प्राप्त कर ली।
(3) स्वरूप में भिन्नता - अंग्रेजी कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी। उसके प्रबन्ध में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। प्रशासन इस कम्पनी के कल्याण में विशेष रुचि दर्शाता था। जबकि फ्रांसीसी कम्पनी के मामलों में सरकार का अत्यधिक हस्तक्षेप था।
(4) फ्रांसीसियों का यूरोपीय युद्धों में उलझना- अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी सम्राटों को यूरोपीय महत्वाकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा। ये सम्राट फ्रांस की प्राकृतिक सीमाओं को स्थापित करने के लिये युद्ध में उलझ गये।
(5) प्रशासनिक कारण- फ्रांसीसी इतिहासकारों ने भी अपने देश की असफलता के लिये अपनी घटिया शासन- प्रणाली को दोषी ठहराया है फ्रांसीसी सरकार स्वेच्छाचारी थी तथा सम्राट के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती थी। महान् सम्राट लुई चौदहवें (1648-1715
ई.) के काल से ही इस प्रशासन की कमजोरियाँ स्पष्ट हो रही थीं। उस काल के अनेक युद्धों के कारण वित्तीय परिस्थिति बिगड़ गयी थी। इंग्लैण्ड में एक जागरूक अल्पतन्त्र राज्य कर रहा था। यह व्यवस्था उत्तम थी तथा इससे देश शक्तिशाली बना। अल्फ्रेड लायड ने फ्रांसीसी
व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसार, डूप्ले की वापसी, लाबोडों तथा डआश की भूलें, काउण्ट डी लाली की अदम्यता इत्यादि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रांतिपूर्ण नीति तथा उसके अक्षम मंत्री फ्रांस की असफलता के लिये उत्तरदायी थे।
(6) अंग्रेजों की श्रेष्ठ जल सेना-
कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के
ने भाग्य का उदय अथवा अस्त नौ-सेना की शक्ति पर निर्भर था। 1746 ई. में फ्रांसीसी कम्पनी को पहले समुद्र में, फिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुयी। इसी प्रकार 1748-71ई. तक जो भी सफलता डूप्ले को मिली, वह उस समय मिली थी जब अंग्रेजी नौ-सेना निष्क्रिय
थी। सप्तवर्षीय युद्ध के समय में यह फिर से सक्रिय हो गयी। वाल्टेयर के अनुसार, "आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के लिये युद्ध में फ्रांस की जल- -शक्ति का इतना ह्रास हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जलपोत नहीं था। बड़े पिट ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया। उस समय न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहे, अपितु बम्बई से कलकत्ता तक जल-मार्गों द्वारा सेवा का लाना और ले जाना अवैध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना का पृथक्करण पूर्ण रहा। यदि शेष कारण बराबर भी होते तो भी जल-सेना की वरिष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिये पर्याप्त थी।"
(7) फ्रांसीसी कम्पनी की कमजोर आर्थिक स्थिति- फ्रांसीसी कम्पनी सरकारी कम्पनी थी। कम्पनी के डायरेक्टर सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते थे। इसलिये उन्हें कम्पनी की समृद्धि में कोई विशेष अभिरुचि नहीं थी। उदासीनता इतनी थी कि 1725 और 1765 ई. के
बीच कम्पनी के भागीदारों की एक भी बैठक नहीं हुयी तथा कम्पनी का प्रबन्ध सरकार ही चलाती रही। इस कारण कम्पनी की वित्तीय स्थिति बिगड़ती चली गयी। एक समय में उसकी यह दुर्दशा हो गयी कि उसे अपने अधिकार सेण्ट मार्लो के व्यापारियों को वार्षिक धन के
बदले देने पड़े। 1721 से 1740 ई. तक कम्पनी उधार लिये गये धन से ही व्यापार करती रही। कम्पनी को समय-समय पर ही सरकार से सहायता मिलती थी, वह तम्बाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे ही चलती रही। अंग्रेजी कम्पनी की आर्थिक स्थिति उत्तम थी।
(8) डूप्ले का उत्तरदायित्व-
डूप्ले एक उत्तम नेता होते हुये भी फ्रांसीसियों की हार के लिये उत्तरदायी है। वह राजनीतिक षड्यंत्रों में इतना उलझ गया था कि उसने वित्तीय पक्षों की अवहेलना की, अतः उनका व्यापार जो पहले भी बहुत अधिक नहीं था, अब और भी कम होना शुरू हो गया। यह एक बहुत ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि डूप्ले जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने
यह समझा कि दक्षिण में अनुसरण की गयी नीति राजनीतिक रूप से उचित है। सन् 1751 ई. में मुजफ्फरजंग द्वारा डूप्ले को कृष्णा नदी के पास के मुगल क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किये जाने को अंग्रेज सुगमता से स्वीकार नहीं कर सकते थे। दूसरे, वह यह भी नहीं समझ पाया कि भारत में दोनों कम्पनियों का झगड़ा वास्तव में यूरोप तथा अमरीका में दोनों राष्ट्रों के झगड़े का ही एक अंक है। इसके अतिरिक्त उसे अत्यधिक आत्मविश्वास था और उसने पेरिस में अपने अफसरों को कुछ अति महत्वपूर्ण सैनिक तथा सामुद्रिक सामरिक दुर्बलताओं एवं कठिनाइयों के विषय में नहीं बताया और यदि उसे सामयिक सहायता नहीं मिली तो यह केवल उसका अपना ही दोष था।
प्रश्न - 2. (अ) 1740 ई. से 1763 ई. तक कर्नाटक के युद्धों के कारण, घटनायें एवं
परिणाम का वर्णन कीजिये।
अथवा
भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसियों में होने वाले संघर्ष का वर्णन कीजिये।
अथवा
1748 से 1763 तक अंग्रेज-फ्रांसीसी और भारतीयों के मध्य सम्बन्धों पर प्रकाश
डालिये।
अथवा
कर्नाटक युद्ध के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिये।
उत्तर-
अंग्रेज और फ्रांसीसी शक्तियों में सत्ता संघर्ष दक्षिण में आरम्भ हुये। इसके लिये निम्न कारण उत्तरदायी थे-
1. कर्नाटक में अराजकता
3. आस्ट्रिया का युद्ध
2. यूरोपीय व्यापारिक प्रतियोगिता
4. डूप्ले के कूटनीतिक प्रयत्न ।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1744-48 ई.) प्रथम कर्नाटक युद्ध का आरम्भ- ब्रिटिश फौजों के भारत आते ही युद्ध आरम्भ हो गया। इसकी प्रमुख घटनायें निम्नलिखित थीं-
1. मद्रास पर फ्रांसीसी अधिकार- डूप्ले ने मॉरीशस के गवर्नर ला वार्डेना को अपनी मदद के लिये बुलाया। ला वार्डेना 1744 में कारोमण्डल तट पर आ गया तथा उसने वार्नेट के उत्तराधिकारी पेटन को पराजित कर मद्रास को जीत लिया। इसी समय डूप्ले और ला वार्डेना
में मतभेद हो गये। वार्डेना का विचार था कि अंग्रेजों से धन लेकर मद्रास लौटा देना चाहिये जबकि डूप्ले उसे अपने अधिकार में रखना चाहता था। परन्तु वार्डेना ने एक लाख पागोड़े (सिक्के) तथा 40,000 पौण्ड लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया। अतः डूप्ले ने पुनः मद्रास को जीत लिया।
2. सेन्टथाम के युद्ध में अनवरुद्दीन की पराजय-
मद्रास को जीतकर देने का आश्वासन दिया था जिससे वह युद्ध में तटस्थ बना रहा। किन्तु डूप्ले ने अनवरुद्दीन को युद्ध के पूर्व ही 1746 में डूप्ले ने मद्रास अनवरुद्दीन को नहीं दिया अतः नवाब ने फ्रांसीसियों पर आक्रमण
किया और स्वयं हार गया। यह युद्ध सेन्टथाम का युद्ध कहलाता है। इसे अडियार का युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में नवाब के पास अच्छा तोपखाना और सेना में अनुशासन नहीं था, जबकि यह दोनों श्रेष्ठतायें फ्रांसीसियों में थीं। अतः नवाब की पराजय हुई।
युद्ध की समाप्ति- एक्स-ला-शेपेल की संधि
- डूप्ले ने फॉर्टसेन्ट डेविड पर आक्रमण किया परन्तु उसे लेने में असफल रहे। दूसरी ओर अंग्रेजों ने फ्रांसीसी केन्द्र पाण्डिचेरी पर अधिकार का प्रयत्न किया परन्तु असफल रहे। इस प्रकार जब युद्ध चल ही रहा था यूरोप में 1748
में एक्स-ला-शेपेल की संधि हो गई। तदनुसार भारत में l भी युद्ध रुक गया। संधि के अनुसार अंग्रेजों को मद्रास तथा फ्रांस को उत्तरी अमेरिका में लुईस वर्ग पुनः प्राप्त हो गये।
प्रथम कर्नाटक युद्ध के परिणाम- प्रथम कर्नाटक युद्ध प्रत्यक्ष परिणामों की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है। परन्तु इसके अप्रत्यक्ष परिणाम दूरगामी थे। इससे अंग्रेज और फ्रांसीसियों को भारत में कोई लाभ या भूमि तथा धन नहीं मिला। परन्तु इसमें फ्रांसीसियों की सैनिक श्रेष्ठता और उनके सेनापतियों के भ्रथचार प्रगट हुये जिसको ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने अपनी सैनिक शक्ति और राष्ट्रीय चरित्र की कमियों को दूर कर विजय को सुनिश्चित किया। भारतीयों में व्याप्त अराजकता, शक्ति मद, शासन की अयोग्यता और उनके दोषों ने अंग्रेजों को राज्य स्थापित करने का अवसर प्रदान किया तथा वे उन पर निर्भर होते चले गये।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1748-1754 ई.)
कर्नाटक का द्वितीय युद्ध-
कर्नाटक का द्वितीय युद्ध 1748 में आरम्भ हुआ और
1754 में समाप्त हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों में तीन उत्तराधिकार युद्ध और अंग्रेज- फ्रांसीसी शत्रुता उत्तरदायी थे-
1. हैदराबाद का संघर्ष
3. तन्जौर में संघर्ष
2. कर्नाटक का संघर्ष
4. अंग्रेज-फ्रांसीसी शत्रुता ।
युद्ध की घटनायें - अगस्त, 1749 में चांदा साहब और फ्रांसीसियों ने अनवरुद्दीन को पराजित कर कर्नाटक पर अधिकार कर लिया। अनवरुद्दीन मारा गया और उसका पुत्र भाग गया। फ्रांसीसियों को चांदा साहब ने पाण्डिचेरी के निकट का प्रदेश दिया। दूसरी ओर अंग्रेजों की मदद से हैदराबाद में नासिर जंग ने मुजफ्फरजंग पर आक्रमण कर दिया और 1750 में उसे बन्दी बना लिया। डूप्ले ने नासिर जंग के सैनिकों को लालच देकर नासिर जंग की हत्या करवा दी तथा मुजफ्फर जंग को मुक्त करा लिया और मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का नवाब घोषित कर दिया। किन्तु किसी ने मुजफ्फरजंग की भी हत्या कर दी। अतः फ्रांसीसियों ने नासिर जंग के छोटे भाई सलावत जंग को नवाब बना दिया अतः इसके उपलक्ष में फ्रांसीसियों को हैदराबाद का उत्तरी भाग मिला। इस प्रकार 1751 में डूप्ले सफल रहा। अब अंग्रेज गवर्नर सान्डर्स ने अनवरुद्दीन के भागे हुये पुत्र मुहम्मद अली की मदद के लिये त्रिचनापल्ली को सेना भेज दी। उधर फ्रांसीसी सेना भी चांदा साहब की रक्षा हेतु पहुँच गई। तन्जौर का शासक, मराठा सरदार मुरारीराव और मैसूर का शासक भी अंग्रेजों से मिल गये। इससे उत्साहित होकर क्लाईव ने कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर आक्रमण कर दिया तथा 1751 में उस पर अधिकार कर लिया। चांदा साहब (त्रिचनापल्ली में था) के पुत्र राजा खाँ ने अर्काट को घेरा परन्तु असफल रहा। क्लाईव और लॉरेन्स ने चांदा साहब की हत्या करा दी तथा अनेक फ्रांसीसियों को बन्दी बनाया एवं मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बना दिया।
इसके पश्चात् भी डूप्ले ने मराठों और तंजौर के शासकों को तटस्थ करके 1753 में • त्रिचनापल्ली को पुनः घेरा परन्तु जीत अंग्रेजों को ही मिली और फ्रांसीसी सरकार ने डूप्ले को वापिस बुला लिया और गाडलू को भेजा।
पाण्डिचेरी की संधि (1755 ई.)- फ्रांसीसी सरकार निरन्तर युद्धों से और पराजों से परेशान थी। अतः 1755 पाण्डिचेरी में संधि हो गई। दोनों ने परस्पर आश्वासन दिये कि भारत के आन्तरिक राज्यों के विषयों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा दोनों ने ही एक-दूसरे के प्रदेश लौटा दिये। नवाबों द्वारा दी गई पदवियों को छोड़ दिया।
परिणाम- इस युद्ध में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को धन और भूमि का लाभ नहीं मिला परन्तु सर्वाधिक हानि भारतीयों की हुई। नवाब अब पूर्णरूपेण शक्तिहीन थे तथा अंग्रेजों पर निर्भर थे। याचक अंग्रेज अब नवाबों को आज्ञा देने लगे थे। फ्रांसीसी प्रभाव और शक्ति तथा प्रतिष्ठा घट गई उनका भयंकर अपमान हुआ।
कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-1763 ई.)- कर्नाटक का तृतीय युद्ध 1756 से 1763 तक हुआ। इसका कारण था कि यूरोप में 1756 में अंग्रेज और फ्रांसीसी शक्तियों में सप्तवर्षीय युद्ध हुआ अतः भारत में भी दोनों में युद्ध हुआ। अंग्रेज इस समय तक बंगाल पर अधिकार कर चुके थे तथा वह 1757 के प्लासी की विजय से उत्साहित थे।
घटनायें- फ्रांसीसी सेनापति काउन्ट लैली विलम्ब से 1758 में भारत पहुँचा और उसने फोर्ट सेन्ट डेविड पर अधिकार कर लिया तथा तंजौर पर आक्रमण कर 56 लाख रुपये वसूल करने का असफल प्रयत्न किया। इस लम्बे समय के घेरे के कारण अंग्रेजी बेड़े ने बंगाल
से आकर आक्रमण कर दिया अतः फ्रांसीसी घेरा समाप्त हो गया।
मद्रास- इसके पश्चात् काउन्ट लैली ने मद्रास पर बुस्से (हैदराबाद से) की मदद से आक्रमण किया उधर कर्नल फोर्ड ने हैदराबाद पर दबाव डाला तथा सलावतजंग को अपनी ओर मिलाया। यहाँ भी मद्रास जीतने में लैली को अधिक समय लगा उधर दूसरा अंग्रेजी जहाजी बेड़ा पहुँच गया तथा लैली को बिना विजय के वापिस लौटना पड़ा। वाण्डिवाश का युद्ध (1760 ई.)- अंग्रेज और फ्रांसीसियों में प्रमुख युद्ध 1760 में वाण्डिवाश नामक स्थान पर हुआ, जिसमें अंग्रेज सेनापति कुक ने बुस्से को बन्दी बनाया और फ्रांसीसियों की अपमानजनक पराजय हुई।
पेरिस की सन्धि (1763 ई.) और परिणाम- इस युद्ध में फ्रांसीसियों ने पराजित होकर संधि प्रस्ताव किया जिसमें निम्न शर्तों पर संधि हो गई-
1. फ्रांसीसियों को उनकी बस्तियाँ दे दी गईं (पाण्डिचेरी, चन्द्रनगर)।
2. परन्तु वे उनमें दुर्ग तथा सुरक्षात्मक कार्यवाही नहीं कर सकेंगे।
इससे फ्रांसीसी शक्ति अपमानित और पतनशील हुई। उनका राजनीतिक हस्तक्षेप निरन्तर कम होता गया। इस प्रकार तीनों कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों की शक्ति और प्रतिष्ठा में क्रमागत वृद्धि और फ्रांसीसी शक्ति में क्रमशः पतन तथा भारतीय नवाबों और जनता की दुर्दशा का आगमन आरम्भ हो गया।
प्रश्न 3- (ब) पानीपत के तीसरे युद्ध के कारण, परिणाम एवं इस युद्ध में मराठों की पराजय
(असफलता के कारणों का वर्णन कीजिये।
अथवा
पानीपत के तृतीय युद्ध के कारणों एवं परिणामों का वर्णन कीजिये।
अथवा
'पानीपत के युद्ध ने दो शक्तियों का अवसान किया और एक शक्ति के उत्थान को सम्भव
बनाया' विवेचन कीजिये।
अथवा
पानीपत के तृतीय युद्ध के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
पानीपत के तृतीय युद्ध के कारणों की समीक्षा कीजिये।
उत्तर-
पानीपत के युद्ध के कारण
1. नादिरशाह का आक्रमण
2. मुगल सम्राटों की निर्बलता
3. मुगल सूबेदारों के विद्रोह
4. मराठों की अविवेकपूर्ण विस्तार नीति
5. भारत से अब्दाली को आमंत्रण
6. 1752 की मराठा-मुगल संघि
7. अहमदशाह अब्दाली की आकांक्षा
8. नजीबुद्दौला पर मराठों का आक्रमण
पानीपत का तृतीय युद्ध (1761 ई.)- अनेक कठिनाईयाँ झेलता हुआ अहमदशाह जून, 1760 ई. में बुलन्दशहर पहुँचा। खाद्यान्न और पशुओं के अभाव के कारण उसकी आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। जब वह लौटने का विचार कर रहा था तभी नजीबुद्दौला ने उसे धैर्य, उत्साह दिलाया तथा सेना और धन से मदद की। अतः वह सोनीपत होता हुआ एक नवम्बर, 1760 को पानीपत पहुँचा।
मराठों की ओर से सदाशिव भाऊ 29 अक्टूबर, 1760 को पानीपत पहुँच चुका था। इस समय पानीपत में मुस्लिम आबादी अधिक थी अतः उनकी सहानुभूति अहमदशाह के साथ थी। दोनों के पास तोपें थीं। नवम्बर में मराठों को पर्याप्त सफलता मिली परन्तु दिसम्बर में मुगल सेनायें पीछे हटने लगीं। मराठा सेनापति बलवन्तराव मेहेन्दले मारा गया। 16 दिसम्बर को नरोशंकर (मराठा) पराजित हुआ। उधर गोविन्द पन्त भी हार गया तथा गोली से मारा गया।
.
इस युद्ध में 3 लाख 10 हजार रुपये अहमदशाह अब्दाली के हाथ लगे। जनवरी में अहमदशाह ने कत्लेआम का आदेश दिया और दिल्ली का मार्ग रोक दिया तथा भोजन पानी नहीं पहुँचने दिया। वास्तविक युद्ध 14 जनवरी, 1761 में हुआ। इसमें मराठों की
बुरी तरह पराजय हुई तथा 15 जनवरी को पुनः पानीपत में कत्लेआम किया गया। मराठों के हाथी, ऊंट और शस्त्रास्त्र अहमदशाह को मिले। पेशवा बालाजी बाजीराव को मराठों की पानीपत में पराजय का समाचार इन शब्दों में मिला, 'दो अमूल्य मोती टूट गये हैं, सत्ताईस स्वर्ण मुद्रायें खो गई हैं तथा नष्ट हुये चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों की तो गणना ही कठिन है।
युद्ध के परिणाम- प्रत्येक युद्ध में जय-पराजय होती है। उसके तात्कालिक तथा दूरगामी परिणाम विजेताओं और पराजितों दोनों पर ही पड़ते हैं, परन्तु दूरगामी परिणाम भोगने पड़ते हैं सामान्य जनता को। इस युद्ध के भी अनेक परिणाम हुये-
1. मराठों का राजनीतिक महत्व घट गया- तृतीय पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय ने विस्तृत मराठा साम्राज्य के भय, प्रभाव, शक्ति और प्रतिष्ठा को समाप्त कर दिया। इसमें मराठों की इतनी क्षति हुई कि मराठों के प्रत्येक घर में से कोई न कोई व्यक्ति अवश्य इसमें मारा गया। मराठों का देश के विभिन्न भागों पर से उसका
नियंत्रण समाप्त हो गया तथा उन पर अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ने लगा।
2. मराठों की आन्तरिक दशा- युद्ध के कारण मराठा सरदारों में उत्तराधिकार के लिये संघर्ष होने लगे तथा उनमें फूट एवं वैमनस्य फैल गये तथा वे एक-दूसरे को
कमजोर करने में लग गये तथा इसके लिये अंग्रेजों से मदद माँगने भी पहुँच गये जिसका लाभ अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की स्थापना के लिये उठाया।
3. मराठा सहयोग–मण्डल समाप्त- पानीपत के बाद मराठा सरदार सिन्धिया, होल्कर, गायकवाड़, भोंसले अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में लग गये। इससे सहयोग–मण्डल तो समाप्त हो ही गया, मराठा संगठन भी टूट गया।
4.मुगल साम्राज्य का पतन- पानीपत के पश्चात् दिल्ली का वास्तविक स्वामी नजीबुद्दौला बन गया था तथा शाहआलम द्वितीय जो मुगल सम्राट था, अहमदशाह
की और नजीब की कृपा पर निर्भर था। इसके कारण शाहआलम मराठों और मुगलों के बीच में घिर गया। मुगल सम्राट की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं हुई जैसी इस समय
5. अहमदशाह अब्दाली की शक्ति घट गई- मराठों की पराजय अवश्य हुई परन्तु अहमदशाह की स्वयं की शक्ति भी इतनी घट गई कि उसके विरुद्ध अफगानों ने
विद्रोह कर दिया परन्तु वह उन्हें दबा नहीं सका। इससे उसकी दशा और गिर गई।
6. सिक्खों, निजाम और हैदर अली का उत्थान- यह तीनों ही मुगलों से परेशान थे। मुगल और मराठे दोनों ही कमजोर हो चुके थे। अतः सिक्खों का पंजाब में उत्कर्ष हुआ और उन्होंने अब्दाली द्वारा स्थापित सत्ता का विरोध किया। मराठों के शत्रु निजाम ने अपनी शक्ति और संगठन आरम्भ कर दिया। उधर हैदरअली ने निजाम-मराठों के संघर्ष का लाभ उठाकर उनके मराठा प्रदेशों पर और निजाम के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इससे तीनों में संघर्ष भी बढ़ गये।
7. ब्रिटिश सत्ता का उदय- व्यापार की याचना से आये अंग्रेजों ने मुगल सम्राट के नवाबों की कमजोरियों का और विघटन का लाभ उठाकर नवाबों को बनाना और
हटाना आरम्भ कर दिया था। सन् 1761 के पश्चात् मराठों में फूट डालकर उन्हें भी सहायक प्रथा मानने के लिये विवश कर दिया। अब उन्हें भारत में चुनौती देने
वाला कोई न रहा। इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना भारत में हो गई।
निष्कर्ष - पानीपत का युद्ध भारत में अब्दाली का उद्देश्य ही उसके आक्रमण का प्रमुख कारण था। सन् 1761 में यह युद्ध हुआ तथा इसमें अयोग्य मुगल सम्राट और मराठे पराजित हुये। मुगलों और मराठों की आन्तरिक फूट, सेनाओं और प्रशासन की कमजोरियों के कारण उनका पतन हुआ। इस युद्ध ने दो शक्तियों का विनाश कर अंग्रेजी आगमन और भारत में उन्हें पैर जमाने में सुविधायें प्रदान कर दीं।
प्रश्न - 3. (अ) भारत में ब्रिटिश शक्ति और सत्ता के विचार, कार्यक्रम तथा विस्तार पर
प्रकाश डालिये।
अथवा
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सत्ता की स्थापना की विवेचना कीजिये।
प्रश्न - (स) मराठा संघ के पतन (विघटन) के कारण बताइये।
अथवा
अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों की पराजय के कारणों का वर्णन कीजिये।
अथवा
मराठों के पतन के कारणों की विवेचना कीजिये।
अथवा
मराठों के पतन के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर- मराठों की पराजय और पतन के कारण- तीन मराठा युद्ध में अंग्रेजों की न केवल भयंकर सैनिक पराजय हुई बल्कि उनकी प्रतिष्ठा, संगठन और युद्ध कौशल का भी पतन हो गया। इस सबके लिये निम्न कारण उत्तरदायी थे-
1. पानीपत का तृतीय युद्ध 1761 में पानीपत के युद्ध में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजय से मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को दूरगामी आघात् लगा। इससे मराठों की आर्थिक क्षमता बहुत घट गई। मराठा राजा का प्रभाव घटा तथा पेशवा का प्रभाव और उस पद को पाने की प्रतियोगिता बढ़ गई और इसके लिये फूट, गुटबाजी, षड्यन्त्र और
अराजकता बढ़ गई। कुछ पेशवा विलासी निकले। बाद में पेशवा पर मराठा नेताओं का नियंत्रण स्थापित हो गया तथा वह प्रत्येक सरदार को प्रसन्न रखने में अयोग्य हो गये।
2. समुचित केन्द्रीय इकाई का अभाव-
वास्तव में मराठा राज्य सयुक्त या केन्द्रीय राज्य नहीं था वह अनेक स्वतंत्र राज्यों का संघ था, अतः उसकी सैनिक और आर्थिक शक्तियाँ विकेन्द्रित थीं। गायकवाड़, भोसले, सिन्धिया और होल्कर में एकता, संगठन तथा
नेतृत्व का अभाव था एवं इनमें राष्ट्रीयता का भी अभाव था। इसका कारण वे तीनों युद्धों में संगठित संघर्ष नहीं कर पाये
3. आर्थिक विनाश- छत्रपति शिवाजी की मुगल या शत्रु राज्य में लूटपाट और चौथ वसूली की नीति, शत्रु राज्य को संकट में डालकर पराजित करने की योजना थी परन्तु कालान्तर में यह नीति मराठा राज्य की विलासिता का कारण बन गये थी। निरन्तर युद्धों में उनकी आर्थिक दशा खराब होती गई तथा वह अपने राज्यों में कृषि, उद्योग और व्यापार का विकास नहीं कर पाये। सहायक-प्रथा ने और कम्पनी ने मराठा राज्यों का दिवाला ही निकाल दिया जिसके कारण मराठे साधन-सम्पन्न नहीं हो पाये और इस कारण से उनकी युद्ध में पराजय हुई।
4.संगठन का अभाव- मराठा सरदारों में रघुनाथ राव ने पद के लोभ में नारायण राव की हत्या करके अंग्रेजों की शरण प्राप्त कर ली और मराठों को आंग्ल-मराठा युद्ध में धकेल दिया। यह फूट, द्वैष और संघर्ष कभी समाप्त नहीं हुये। इससे उनको एक संगठन, शक्ति, अजेयता में विश्वास समाप्त होने लगा तथा उनका पतन और पराजय होने लगी।
5. मराठों की कूटनीतिक अयोग्यता- मराठे अंग्रेजों की प्रवृत्ति, उद्देश्य, कूटनीति और युद्ध-प्रणाली को नहीं समझ पाये। चाहे रघुनाथ राव हों अथवा महादजी सिंधिया हो या होल्कर, इस दृष्टि से ये सभी अक्षम थे। उनकी यह अयोग्यतायें निम्न घटनायें स्पष्ट हैं-
अंग्रेजों ने मराठों को उन्हें अलग-अलग कर उनकी फूट का लाभ उठाकर उन्हें पराजित किया। उन्हें मैसूर से नहीं मिलने दिया। इस प्रकार मराठे अंग्रेजों की कूटनीति को समझने में असफल रहे।
6. प्रशासनिक दोष- शिवाजी जागीर-व्यवस्था के विरोधी थे परन्तु नकद धन के अभाव में मराठों में सामन्तशाही और जागीर-व्यवस्था में स्थापित हो गई। जागीर-व्यवस्था में आनुवांशिकता का भी प्रभाव था। अतः परस्पर फूट, विलासिता, अधिक धन-वसूली आदि
दोष मराठों में फूट पड़े। कुछ पेशवा तो अति विलासी और अयोग्य थे जैसे- बाजीराव द्वितीय।
7. सैनिक कमियाँ-- मराठों ने तोपखाने और जल-शक्ति पर ध्यान नहीं दिया जिसके कारण वे अंग्रेजों को समुद्र में नहीं रोक पाये तथा उनके तोपखानों का तथा बारूद का मुकाबला नहीं कर पाये। दूसरी सैनिक कमी यही थी कि टीपू के प्रयत्नों और शक्ति का मराठे साथ देते तो निश्चय ही इतिहास बदल जाता परन्तु लोभ ने उन्हें दोनों की सैनिक शक्तियों को नहीं मिलने दिया।
8. आदर्श और राष्ट्रीय भावना का अभाव- छत्रपति शिवाजी के व्यापक आदर्श और राष्ट्रीय उद्देश्य 'हिन्दू-पद-पादशाही' आदि थे। इसके पश्चात् योग्य पेशवा बाजीराव (1720), बालाजी बाजीराव आदि के उच्चादर्श बाजीराव द्वितीय ने छोड़ ही नहीं दिये • बल्कि उन्हें भुला ही कर दिया जो सभी दृष्टियों से अनैतिक और आदर्श विहीन था। सम्पूर्ण मराठों में भी यही स्थिति थी, इस कारण वे अपने मतभेद नहीं भुला सके।
9. मराठों के नेतृत्व की असामयिक मृत्यु- मराठों के पतन के कारणों में पेशवा माधवराव की मृत्यु थी जिसके कारण उत्तराधिकार मृत्यु, रामशास्त्री की मृत्यु, महादजी की युद्ध चला। इसके तथा हरिवन्त और पश्चात् योग्य नेता नाना अहिल्या बाई की मृत्यु फड़नवीस आदि के कारण मराठे अपने को संभाल नहीं पाये। इस कारण उनमें अराजकता उत्पन्न हुई और उनकी पराजय हुई।
तृतीय मराठा युद्ध में मराठों की शक्ति अन्तिम रूप से समाप्त हो गई तथा 1857 में नाना साहब ने मराठों के अनेक दोषों तथा उनकी कूटनीतिक अक्षमता को दूर कर मुगल सम्राट तथा पड़ौसी राज्यों से सम्पर्क कर संघर्ष किया, किन्तु शिवाजी के आदर्श सदैव के लिये समाप्त हो गये और वे इतिहास की वस्तु बन गये।
प्रश्न - 4. (अ) बक्सर के युद्ध के कारणों एवं परिणामों पर प्रकाश डालिये।
अथवा
बक्सर युद्ध के कारण, घटनाओं और परिणामों की विवेचना कीजिये।
अथवा
‘
अंग्रेजी प्रभुत्व की दृष्टि से बक्सर का प्लासी से अधिक महत्व है।' सर जेम्स स्टीफन के इन शब्दों की समीक्षा कीजिये।
अथवा
यह कहना कहाँ तक उचित है कि, 'बक्सर ने बंगाल पर कम्पनी-शासन को पूर्णरूप से स्थापित कर दिया।
अथवा
'बक्सर में बंगाल का नवाब, भारत का सम्राट और उसका वजीर युद्ध में पराजित हुये।' इस कथन का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
अथवा
'बक्सर ने प्लासी के कार्य को पूर्ण किया।' स्पष्ट कीजिये।
उत्तर- बंगाल में प्लासी युद्ध के परिणामस्वरूप मीर जाफर नवाब बन चुका था। परन्तु वह शान्ति से रह नहीं सका। भारी मात्रा में धन और भूमि अंग्रेजों को देने के कारण मीर जाफर के सम्मुख अनेक राजनैतिक और आर्थिक समस्यायें उपस्थित हुई। मीर जाफर नाममात्र का नवाब था। सत्ता या शक्ति क्लाईव के हाथों में थी। धन के अभाव में सैनिक विद्रोह कर रहे थे। किश्तों को देने के लिये अंग्रेज दबाव डाल रहे थे।
बक्सर युद्ध के कारण-
मीर कासिम को अंग्रेजों ने 1760 में नवाब बनाया, परन्तु अंग्रेजों से उसके शीघ्र ही मतभेद हो गये तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। बक्सर की युद्ध भूमि में मीर कासिम, सम्राट शाह आलम और अवध के शुजाउद्दौला की संयुक्त शक्ति से अंग्रेजों ने 1764 में युद्ध किया।
इसके निम्न कारण थे-
1. मीर कासिम की योग्यता से खतरा- अंग्रेजों ने मीर कासिम को नवाब बना दिया था। वे सोचते थे कि वह मीर जाफर से अधिक धन देगा। कम्पनी के भ्रष्ट अधिकारियों को धन के लिये बदलना आरम्भ कर दिया था। अंग्रेज चाहते थे कि पंगु और अयोग्य व्यक्ति यदि नवाब बनेगा तो उनके नियंत्रण में और उन पर निर्भर रहेगा। किन्तु मीर कासिम योग्य निकला। उसने कम्पनी का कर्ज चुका दिया।
2. अंग्रेजों का अवैध व्यापार- 1757 की भाँति कम्पनी के भ्रष्ट कर्मचारी अवैध व्यापार में लगे थे। अपने नाम से वह देशी व्यापारियों का माल बिना चुंगी के भेजने लगे थे। प्रत्येक चौकी पर अंग्रेज भारतीयों की नौका को रोककर विलम्ब करते और रिश्वत माँगते थे। अंग्रेजों ने हिंसात्मक तरीके अपनाये। बिना अनुमति कारखाने, सैनिकों तथा किलों की संख्या बढ़ा दी। यह स्वाभाविक ही था कि मीर कासिम ने इसे रोकने के लिये कहा परन्तु अंग्रेज नहीं माने। अंग्रेज सार्जेन्ट बरगोयने, बेरेलेस्ट आदि ने कम्पनी के भ्रष्टाचार, गुमाश्तों के लोभ तथा इनकी हिंसा का वर्णन किया है। अतः युद्ध आवश्यक हो गया।
3. मीर कासिम के द्वारा व्यापार नियंत्रण- पहले मीर कासिम ने अवैध व्यापार को रोकने के लिये कम्पनी से वार्ता की परन्तु न मानने पर विभिन्न चौकियों पर माल की जाँच-पड़ताल आरम्भ की। इस पर भी जब अंग्रेज न माने तो देशी व्यापारियों की वस्तु पर से भी उसने चुंगी
समाप्त कर दी। इससे कम्पनी की भ्रष्ट आय रुक गई। अब कम्पनी के कर्मचारी मीर कासिमको हटाने की माँग करने लगे।
4. समझौते के प्रयत्न असफल- कम्पनी ने मीर कासिम के पास वान्सेटार्ट को समझौते के लिये भेजा। वान्सेटार्ट ने अवैध व्यापार की बात तो स्वीकार की तथा अवैध व्यापार न करने की बात मान ली परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने समझौते को अस्वीकार कर अप्रत्यक्ष रूप से अवैध व्यापार का समर्थन किया। वास्तव में कौंसिल ने मीर कासिम को हटाने का निश्चय कर लिया था। इससे संघर्ष अनिवार्य हो गया।
5. मीर कासिम को हटाकर मीर जाफर को पुनः नवाब बनाना- 1763 में अंग्रेजों ने मीर कासिम पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा उसे हटाकर मीर जाफर को पुनः नवाब बनाया जिससे अंग्रेजों को पुनः वही भ्रष्ट व्यापार की छूट मिली। इससे भ्रष्टाचार अधिक बढ़ा।
मीर जाफर निर्बल सिद्ध हुआ। परन्तु मीर कासिम ने अपने अपमान का बदला लेने का निश्चय किया।
6. सम्राट, मीर कासिम और शुजाउद्दौला के संयुक्त प्रयास- बंगाल से भागकर मीर कासिम बिहार और फिर अवध के नवाब शुजाउद्दौला के पास गया। इसी समय मुगल सम्राट शाह आलम भी अवध में उपस्थित था। तीनों ने मिलकर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिये
अंग्रेजों से संघर्ष करने का निश्चय किया। मीर कासिम ने इस युद्ध के लिये 11 लाख रुपये प्रतिमास अवध को देने का वचन दिया। अंग्रेज इस संयुक्त प्रयत्न को देखकर युद्ध के लिये तैयारी करने लगे।
7. फ्रांसीसी सहायता- प्लासी युद्ध के पश्चात् या कर्नाटक के तृतीय युद्ध के पश्चात् फ्रांसीसी शक्ति बहुत कुछ कम हो गई थी। परन्तु एक बार पुनः वे मीर कासिम गुट की
सहायता करने आ गये। यह अंग्रेजों के लिये अत्यन्त कष्टकारी घटना थी।
8. युद्ध की घटनायें- 1763 में मीर कासिम ने घटना से भागते समय लगभग 200- अंग्रेज बंदियों की हत्या करवा दी थी और सम्राट तथा अवध के साथ संयुक्त मोर्चा भी स्थापित कर लिया था अतः दोनों में 1764 में बक्सर के मैदान में युद्ध हुआ। अंग्रेज सेनापति मनरो
ने अवध के नवाब वजीर को पराजित कर दिया। मई, 1765 में शुजाउद्दौला अन्तिम बार पराजित हुआ। दूसरी ओर मुगल सम्राट शाह आलम ने अंग्रेजों से समझौता कर लिया। मीर कासिम को निराश होकर युद्ध भूमि से भाग जाना पड़ा।
9. इलाहाबाद संधि - मई, 1765 में संयुक्त मोर्चे की पू
पूर्णरूपेण पराजय हो गई और शुजाउद्दौला तथा सम्राट शाह आलम को विवश होकर इलाहाबाद की संधि करना पड़ी।
इसकी निम्नलिखित शर्तें थीं-
1. शुजाउद्दौला से कड़ा और इलाहाबाद छीन कर अवध प्रदेश उसे लौटा दिया गया।
2.अंग्रेजों को शुजाउद्दौला ने 50 लाख रुपये युद्ध-क्षति के रूप में देना स्वीकार किया
3.अंग्रेजों ने अवध को उसके व्यय पर सैनिक सहायता देना स्वीकार किया।
4.अंग्रेजों को नवाब को बिना कर दिये अवध में व्यापार करने की छूट दी गई।
5.मुगल सम्राट को कड़ा और इलाहाबाद दे दिये गये।
6.मुगल सम्राट को अंग्रेजों ने 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया।
7. मुगल सम्राट ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप दी अर्थात् इनसे वे लगान वसूल कर सकते थे।
बक्सर युद्ध के परिणाम एवं महत्व
बक्सर का युद्ध सरकार और दत्त के अनुसार, 'प्लासी
से कहीं अधिक निर्णायक था और सरजेम्स स्टीफन के अनुसार प्लासी से अधिक महत्व का था ।
1. राजनीतिक परिणाम
राजनीतिक रूप में बक्सर ने प्लासी के अधूरे कार्य को पूर्ण किया। इसने कम्पनी को एक प्रभुत्व सम्पन्न शक्ति बना दिया। प्लासी का युद्ध एक साधारण झड़प थी, जबकि इसमें सैनिक कुशलता तथा वीरता का प्रदर्शन हुआ। अतः अंग्रेजों की शक्ति की धाक स्थापित हो गई। इसके कारण कम्पनी को उत्तर प्रदेश और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त पर अधिकार का अवसर मिला। रेम्जेम्योर के अनुसार, बक्सर के युद्ध ने बंगाल पर कम्पनी के शासन को अन्तिम रूप से जकड़ दिया और सम्पूर्ण बंगाल उनकी दया या निर्दयता सम्मुख कराहने लगा। अब बंगाल में कठपुतली नवाब बैठाने या हटाने की शक्ति कम्पनी को मिल गई। इस युद्ध के प्रत्यक्ष परिणाम में अंग्रेजों की विजय और भारत की तीन शक्तियों संयुक्त रूप से पराजित होने के कारण अंग्रेजों को पराजित करने की भारतीय आकांक्षा दीर्घकाल तक के लिये समाप्त हो गई।
2. आर्थिक परिणाम- अंग्रेजों ने सदैव प्रथधारण किया था। इस युद्ध की क्षतिपूर्ति में बंगाल से 50 लाख रुपया वसूल किया गया तथा बिना कर व्यापार का अधिकार मिलने से सम्पन्न बंगाल निर्धन बंगाल बन गया। अंग्रेजों का प्रथधार भी अब पहले से बहुत बढ़ गया जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। अपराध बढ़े, जमींदारों के अत्याचार चरम सीमा पर पहुँच गये। पटना, बिहार और उड़ीसा की लगान वसूली में भी कृषकों को सताया जाने लगा।
3. भारत की सर्वोच्च शक्ति पराजित हुई- बक्सर युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम भारत की सर्वोच्च शक्ति सम्राट शाह आलम उसका नवाब वजीर, बंगाल का नवाब संयुक्त रूप से पराजित हुये और सम्राट ने कम्पनी को तीन प्रान्तों की दीवानी देकर उनके द्वारा अवैध धन
वसूली को वैध बना दिया। सम्राट यद्यपि नाम-मात्र का था तथापि सभी नवाब उसके आधीन माने जाते थे। युद्ध में सम्राट के हारने का प्रभाव यह हुआ कि कम्पनी की शक्ति और प्रभुत्व को नवाब और जनता को स्वीकार करना ही पड़ा। इससे भारतीय शक्तियों की और क्रमशः पतनशील हो गई। इस प्रकार कम्पनी को सम्राट की स्वीकृति मिलते ही वह वैधानिक प्रधान और निर्णायक शक्ति बन गई। प्रतिष्ठा गिरी
4. द्वैध शासन से भारत की दुर्दशा- इस युद्ध के बाद क्लाईव ने बंगाल में दोहरा शासन स्थापित किया जो इतना अधिक भ्रष्ट, अन्यायी, शोषक और दायित्वहीन था कि 'जनता भिखारी और लुटेरी बनी।' एक अंग्रेज बेचर ने लिखा है कि, 'नवाबों के शासन में यह देश सुखी-सम्पन्न था जो अब अंग्रेजी प्रभुत्व में बर्बादी की ओर जाने लगा।' नन्दलाल चटर्जी ने कहा है कि, 'छल-कपट का ही दूसरा नाम दीवानी था।' अंग्रेजों ने वस्त्र उद्योगों के कुशल कारीगरों के अंगूठे इसलिये कटवा दिये कि उन्होंने अपनी कुशलता का राज अंग्रेजों को नहीं बताया। अंग्रेज रेशम बुनने और ढाका की प्रसिद्ध मलमल अपने कारखानों में बनवाना चाहते थे। यह शासन इतना आतंकवादी और निर्दयी तथा अत्याचारी था कि विद्रोह और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई अतः कम्पनी ने 1772 में इसे समाप्त करना ही उचित समझा।

H na jkannn